~~अनंत कोटी ब्रम्हांड नायक राजाधिराज योगीराज परं ब्रम्हं श्री सच्चिदानंद सदगुरू श्री साईनाथ महाराज की जय ~~
शिरडी साई बाबा चालीसा
पहले साई के चरणों में ,अपना शीश नवाउं मैं,
कैसे शिरडी साई आये, सारा हाल सुनाऊ मैं ,
कौन है माता ,पिता कौन है ,यह न किसी ने भी जाना ,
कहाँ जनम साई ने धारा ,प्रश्न पहेली रहा बना ,
कोई कहे अयोध्या के ये ,रामचंद्र भगवान है ,
कोई कहता साई बाबा ,पवन पुत्र हनुमान है ,
कोई कहता मंगल मूर्ति ,श्री गजानन है साई ,
कोई कहता गोकुल -मोहन ,देवकी नंदन है साई ,
शंकर समझे भक्त कई तो ,बाबा को भजते रहते ,
कोई कहे अवतार दत्त का,पूजा साई की करते ,
कुछ भी मानो उनको तुम,पर साई हैं सच्चे भगवान् ,
बडे दयालु ,दीपबंधु,कितनों को दिया है जीवन दान ,
कई वर्ष पहले की घटना ,तुम्हें सुनाऊंगा मैं बात,
आया साथ उसी के था ,बालक एक बहुत सुंदर ,
आया ,आकर वहीं बस गया ,पवन शिरडी किया नगर,
कई दिनों तक रहा भटकता ,भिक्षा मांगी उसने दर-दर ,
और दिखाई ऐसी लीला ,जग में जो हो गई अमर,
जैसे -जैसे उमर बढी,वैसे ही बढती गयी शान ,
घर -घर होने लगा नगर में ,साई बाबा का गुणगान,
दिग्-दिगंत मैं लगा गूंजने ,फिर तों साई जी का नाम ,
दीन-दुखी की रक्षा करना ,यही रहा बाबा का काम,
बाबा के चरणों में जाकर ,जो कहता मैं हूँ निर्धन ,
दया उसी पर होती उनकी ,खुल जाते दुःख के बन्धन ,
कभी किसी ने मांगी भिक्षा ,दो बाबा मुझको संतान ,
एवं अस्तु तब कहकर साई ,देते थे उसको वरदान ,
स्वयम् दुःखी बाबा हो जाते , दींन -दुखी का लख हाल ,
अन्तः कारन श्री साईं का, सागर जैसा रहा विशाल ,
भक्त एक मद्रासी आया ,घर का बहुत बड़ा धनवान ,
माल खजाना बेहद उसका ,केवल नहीं रही संतान,
लगा मनाने साई नाथ को ,बाबा मुझ पर दया करो ,
झंझा से झंकृत नैया को,तुम ही मेरी पार करो ,
कुलदीपक के बिना अँधेरा ,छाया हुआ है घर में मेरे ,
इसीलिये आया हूँ बाबा ,होकर शरणागत तोरे,
कुलदीपक के ही अभाव में ,व्यर्थ है दौलत की माया ,
आज भिखारी बनकर बाबा ,शरण तुम्हारी मैं आया ,
दे दो मुझको पुत्र दान , मैं ऋणी रहूंगा जीवन भर ,
और किसी की आस न मुझको ,सिर्फ़ भरोसा है तुमपर ,
अनुनय -विनय बहुत की उसने ,चरणों में धर-करके शीश ,
तब प्रसन्न होकर बाबा ने ,दिया भक्त को यह आशीष ,
अल्ला भला करेगा तेरा , पुत्र जन्म हो तेरे घर,
कृपा रहेगी तुम पर उसकी , और तेरे उस बालक पर,
अब तक नहीं किसी ने पाया, साईं की कृपा का पार ,
पुत्र रत्न दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार ,
तन-मन से जो भजे उसी का ,जग में होता है उद्धार,
सांच को आंच नही है कोई ,सदा झूठ की होती हार ,
मैं हूँ सदा सहारे उसके ,सदा रहूंगा उसका दास ,
साईं जैसा प्रभु मिला है ,इतनी ही कम है क्या आस ,
मेरा भी दिन था इक ऐसा ,मिलती नहीं मुझे थी रोटी ,
तन पर कपड़ा दूर रहा था ,शेष रही नन्ही लंगोटी,
सरिता सन्मुख होने पर भी ,मैं प्यासा का प्यासा था ,
दुर्दिन मेरा मेरे ऊपर ,दवांग्नी बरसता था ,
धरती के अतिरिक्त जगत में ,मेरा कुछ अवलंब न था,
बना भीखारी मैं दुनिया में ,दर-दर ठोकर खाता था,
ऐसे में इक मित्र मिला जो,परम भक्त साईं का था,
जंजालो से मुक्त ,मगर इस जगती में वह मुझ सा था ,
बाबा के दर्शन के खातिर ,मिल दोनों ने किया विचार ,
साईं जैसे दयामूर्ती के, दर्शन को हो गये तैयार ,
पावन शिरडी नगरी जाकर ,देखी मतवाली मूरति ,
धन्य जनम हो गया की हमने ,जब देखी साईं की सुरति,
जब से किए है दर्शन हमने ,दुःख सारा काफूर हो गया,
संकट सारे मिटे और ,विपदाओं का हो अंत गया ,
मान और सम्मान मिला ,भिक्षा में हमको बाबा से ,
प्रतिबिम्बित हो उठे जगत में ,हम साईं की आज्ञा से,
बाबा ने सम्मान दिया है ,मान दिया इस जीवन में ,
इसका ही संबल ले मैं ,हंसता जाऊंगा जीवन में ,
साईं की लीला का मेरे ,मन पर ऐसा असर हुआ ,
लगता ,जगती के कण -कण में,जैसे हो वह भरा हुआ ,
'काशीराम' बाबा का भक्त ,इस शिरडी में रहता था ,
मैं साईं का ,साईं मेरा ,वह दुनिया से कहता था ,
सी कर स्वयं वस्त्र बेचता ,ग्राम नगर बाज़ारों में ,
झंकृत उसकी हृदय तंत्री थी ,साईं की झंकारों में,
स्तब्ध निशा थी,थे सोये ,रजनी आँचल में चाँद-सितारे ,
नहीं सूझता रहा हाथ को हाथ तिमिर के मारे ,
वस्त्र बेचकर लौट रहा था ,हाय !हाट से 'काशी',
विचित्र बड़ा संयोग कि उस दिन,आता था वह एकाकी ,
घेर राह में खडे हो गए ,उसे कुटिल ,अन्यायी ,
मरो काटो लूटो इसको ,यही ध्वनि पड़ी सुनाई,
लुट पीट कर उसे वहाँ से ,कुटिल गये चम्पत हो,
आघातों से मर्माहत हो ,उसने दी संज्ञा खो ,
बहुत देर तक पड़ा रहा वह ,वहीं उसी हालत में,
जाने कब कुछ होश ,हो उठा ,उसको किसी पलक में ,
अनजाने ही उसके मुंह से ,निकल पड़ा था साईं ,
जिसकी प्रतिध्वनि शिरडी में,बाबा को पड़ी सुनाई,
क्षुबध हो उठा मानस उनका, बाबा गए विकल हो ,
लगता जैसे घटना सारी ,घटी उन्हीं के सन्मुख हो,
उन्मादी से इधर -उधर ,तब बाबा लगे भटकने,
सन्मुख चीज़े जो भी आईं,उनको लगे पटकने ,
और धधकते अंगारों में,बाबा ने कर डाला ,
हुए सशंकित सभी वहाँ ,लख ताण्डव नृत्य निराला,
समझ गए सब लोग कि कोई ,भक्त पड़ा संकट में ,
क्षुभित खडे थे सभी वहाँ पर,पडें हुए विस्मय में,
उसे बचाने की ही खातिर ,बाबा आज विकल हैं,
उस की ही पीड़ा से पीड़ित उनका अंतस्तल है,
इतने में ही विधि ने अपनी ,विचित्रता दिखलाई ,
लेकर संज्ञाहीन भक्त को ,गाड़ी एक वहां आई ,
सन्मुख अपने देख भक्त को,साईं की आंखे भर आईं,
शांत,धीर,गंभीर सिंधु सा ,बाबा का अंतस्तल ,
आज न जाने क्योँ रह-रहकर ,हो जाता था चंचल,
आज दया की मूर्ति स्वयं था,बना हुआ उपचारी,
औए भक्त के लिये आज था ,देव बना प्रतिहारी ,
आज भक्त की विषम परीक्षा में,सफल हुआ था काशी ,
उसके ही दर्शन की खातिर थे,उमडे नगर -निवासी ,
जब भी और जहाँ भी कोई ,भक्त पड़े संकट में,
उसकी रक्षा करने बाबा,जाते हैं पलभर में,
युग -युग का है सत्य यह,नहि कोई नई कहानी ,
आपत्ग्रस्त भक्त जब होता,जाते ख़ुद अंतर्यामी ,
भेद-भाव से परे पुजारी ,मानवता के थे साईं,
जितने प्यारे हिंदू-मुस्लिम ,उतने ही थे सिक्ख इसाई ,
भेद -भाव मन्दिर -मस्जिद का, तोड़ -फोड़ बाबा ने डाला ,
राम रहीम सभी उनके थे ,कृष्ण-करीम -अल्लाहताला ,
घंटे की प्रतिध्वनि से गूंजा ,मस्जिद का कोना-कोना ,
मिले परस्पर हिंदू-मुस्लमान , प्यार बढ़ा दिन दूना ,
चमत्कार था कितना सुंदर ,परिचय इस काया ने दी ,
और नीम की कड़वाहट में भी ,मिठास बाबा ने भर दी ,
सबको स्नेह दिया साईं ने,सबको अन्तुल प्यार किया ,
जो कुछ जिसने भी चाहा,बाबा ने उसको वही दिया,
ऐसे स्नेह शील भाजन का,नाम सदा जो जप करे ,
पर्वत जैसा दुःख न क्योँ हो,पलभर में वह दूर टरे ,
साईं जैसा दाता हमने ,अरे नहीं देखा कोई ,
जिसने केवल दर्शन से ही ,सारी विपदा दूर गई,
तन में साईं ,मन में साईं ,साईं -साईं भजा करो ,
अपने तन की सुधि -बुधि खोकर ,सुधि उसकी तुम किया करो ,
जब तू अपनी सुधियाँ तजकर ,बाबा की सुधि किया करेगा ,
और रात दिन बाबा ,बाबा ही तू रटा करेगा ,
तो बाबा को अरे ! विवश हो ,सुधि तेरी लेनी ही होगी ,
तेरी हर इच्छा बाबा को, पुरी ही करनी होगी ,
जंगल-जंगल भटक न पागल , और ढ़ूंढ़ले बाबा को ,
एक जगह केवल शिरडी में,तू पाएगा बाबा को,
धन्य जगत में प्राणीं है वह,जिसने बाबा को पाया,
दुःख में सुख में प्रहार आठ हो ,साईं का ही गुण गया ,
गिरें संकटों के पर्वत ,चाहे बिजली ही टूट पड़े ,
साईं का ले नाम सदा तुम, सन्मुख सब के रहो अडे ,
इस बुढे की करामात सुन,तुम हो जाओगे हैरान ,
दंग रह गए सुनकर जिसको ,जाने कितने चतुर सुजान ,
एक बार शिरडी में साधू ,ढोगी था कोई आया ,
भोली -भाली नगर निवासी ,जनता को था भरमाया ,
जड़ी -बूटियां उन्हे दिखाकर ,करने लगा वहाँ भाषण ,
कहने लगा सुनो श्रोतागण घर मेरा है वृन्दावन ,
औषधि मेरे पास एक है ,और अजब इसमें शक्ति ,
इसके सेवन करने से ही ,हो जाती दुःख से मुक्ति,
अगर मुक्त होना चाहो ,तुम संकट से,बीमारी से ,
तो है मेरा नम्र नेवेदन ,हर नर से नर -नारी से,
लो खरीद तुम इसको इसकी ,सेवन विधियाँ हैं न्यारी,
यधपि तुच्छ वस्तु है यह ,गुण उसके हैं अतिशय भारी,
जो हैं संतति हीन यहाँ यदि ,मेरी औषधि को खाएं ,
पुत्र -रत्न हो प्राप्त ,अरे और वह मुंह माँगा फल पाएं ,
औषधि मेरी जो न खरीदे ,जीवन भर पछताएगा,
मुझ जैसा प्राणी शायद ही ,अरे यहाँ आ पायेगा ,
दुनिया दो दिन का मेला है , मौज शौक तुम भी कर लो ,
गर इससे मिलता है ,सब कुछ ,तुम भी इसको ले लो ,
हैरानी बढती जनता की,लख इसके कारस्तानी ,
प्रमुदित वह भी मन-ही-मन था,लख लोंगों की नादानी ,
ख़बर सुनाने बाबा को यह ,गया दौड़कर सेवक एक,
सुनकर भ्र्कुटी तनी और विस्मरण हो गया सभी विवेक ,
हुक्म दिया सेवक को,सत्वर पकड़ दुष्ट को लावो ,
या शिरडी की सीमा से ,कपटी को दूर भगावो,
मेरे रहते भोली-भली ,शिरडी की जनता को,
कौन नीच ऐसा जो,साहस करता है छलने को,
पल भर में ही ऐसे ढ़ोगी,कपटी जीव लुटेरे को,
महानाश के महागर्त में ,पहुँचा दूँ जीवन भर को,
तनिक मिला आभास मदारी ,क्रूर ,कुटिल अन्यायीको,
काल नाचता है अब सिर पर ,गुस्सा आया साईं को ,
पलभर में सब खेल बंद कर,भागा सिर पर रखकर पैर ,
सोच रहा था मन-ही -मन ,भगवान नहीं है क्या अब खैर ,
सच है साईं जैसा दानी ,मिल न सकेगा जग में ,
अंश ईश का साईं बाबा ,उनेह न कुछ भी मुश्किल जग में,
स्नेह शील ,सौजन्य आदि का ,आभूषण धारण कर,
बढता इस दुनिया में जो भी ,मानव -सेवा के पथ पर,
वही जीत लेता है जगती के ,जन-जन का अंतस्तल ,
उसकी एक उदासी ही जग को ,कर देती है विह्वल ,
जब-जब जग में भार पाप का,बढ-बढ जाता है ,
उसे मिटाने की ही खातिर ,अवतारी हो आता है ,
पाप और अन्याय सभी कुछ ,इसी जगती का हर में,
दूर भगा देता दुनिया के,दानव को क्षण भर में,
स्नेह सुधा की धार बरसने ,लगती है इस दुनिया में,
गले परस्वर मिलने लगते है, जन-जन आपस में ,
ऐसे ही अवतारी साईं, मृत्युलोक में आकर,समता का यह पाठ पढाया ,
सबको अपना आप मिटाकर ,नाम द्वारका मस्जिद का रखा ,शिरडी में साईं ने,
दान,ताप,संताप मिटाया ,जो कुछ पाया साईं ने,
सदा याद में मस्त राम की,बैठे रहते थे साईं,
पहर आठही राम नाम की ,भजते रहते थे साईं,
सुखी-रूखी ताज़ी बासी,चाहे या होवे पकवान ,
सदा प्यार के भूखे साईं की,खातिर थे सभी समान ,
स्नेह और श्रद्धा से अपनी ,जन जो कुछ दे जाते थे ,
बड़े चाव से उस भोजन को बाबा पावन करते थे,
कभी-कभी मन बहलाने को,बाबा बाग़ में जाते थे,
प्रमुदित मन में निरख प्रकृति ,छठा को वे होते थे ,
रंग-बिरंगे पुष्प बाग़ के ,मंद -मंद हिल -डुल करके ,
बीहड़ वीराने मन में भी ,स्नेह सलिल भर जाते थे,
ऐसी सुमधुर बेला में भी ,दुःख आपद विपदा के मारे ,
अपने मन की व्यथा सुनाने ,जन रहते बाबा को घेरे ,
सुनकर जिनकी करुण कथा को ,नयन कमल भर आते थे,
दे विभूति हर व्यथा ,शान्ति उनके उर में भर देते थे,
जाने क्या अद्भुत ,शक्ति ,उस विभूति में होती थी,
जो धारण करके मस्तक पर ,दुःख सारा हर लेती थी ,
धन्य मनुज वे साक्षात् दर्शन ,जो बाबा साईं के पाये ,
धन्य कमल कर उनके जिसने ,चरण -कमल वे परसाए,
काश ! निर्भय तुमको भी ,साक्षात् साईं मिल जाता ,
बरसों से उजड़ा चमन अपना ,फिर से आज खिल जाता ,
गर पकड़ता मैं चरण श्रीके ,नहीं छोड़ता उम्रभर ,
मना लेता मैं जरूर उनको ,गर रुठते साईं मुझ पर,
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4 comments:
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